मैं पंछी हूँ ?

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एक दिन कौंधा एक सवाल मन में मेरे;
उड़ते हुए आकाश में, इस जगत से भी परे।
मैं पंछी हूँ ?

एक वक्त था, यौवन नई-नई छाई थी;
मन मद्‌मस्त था, जोश नई- नई आई थी।
वृक्षों के एक एक पत्तों से, संबंध था एक अनोखा,
एक- एक डाल से मेरा, पल- पल का था रिश्ता ।

ना था मुझसा कोई इस जग में स्वतंत्र,
हवाओं के लहरों को चिरकर, निकल जाते थे मेरे पंख ।
कितना था गौरव मुझे मेरी कलाओं पर,
ठीक उतना ही प्रेम प्रकृति को था मुझपर।

भूत से परे आज विद्यमान वर्तमान है,
मुझ जैसा अभागा इस संसार में न व्याप्त है।
देख रहा हूँ मैं स्वयं को पड़े भू पर,
न कोई यौवन, न जोश, न स्व का कोई तंत्र ।

सीने में मेरे किसी कलमुँहे का पाप है,
खुले आकाश में जिसने उड़ने से रोका मुझे;
हृदय में मेरे ऐसी पीतल दागी हुई है,
की अब मैं अचेत, निर्बल, श्वाँस की कमी है।

जी हाँ, मैं पंछी नहीं हूँ !!
मैं, उस दिलफेंक की आत्मा हूँ।
जो आज अपने मृत शरीर के इर्द-गिर्द, मंडरा रही है,
और परमात्मा में विलीन हो जाने को तड़प रही है।

                                                                      लक्ष्य

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