आंखें

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आंखों की अब क्या में बात करू
देखा इसने क्या क्या नहीं
अच्छा भी देखा बुरा भी देखा
देखा कितनी दुनिया विचित्र।

पल पल बदलते हैं लोग यहां
पल पल संभलते हैं लोग यहां।

कुछ हौसला रखते हुए
बढ़ते चले, बढ़ते चले
हिम्मत ना हरी और कुछ ने
लरते रहे, लरते रहे
कुछ ने उठा रखी थी तलवार इंसाफ की
इंसाफ करते रहे, करते रहे
लेकर मशाल सत्य का
कुछ सत्य की रह पर
चलते रहे, चलते रहे।

(इन हौसला ने, हिमत्तो ने
इंसाफ ने और सत्य ने
आंखो में एक थी चमक दी।)

देखा तो कुछ ने उम्मीद छोड़
आंधी में यूं
बिखरते रहे, बिखरते रहे
कुछ ओढ़ दुख की चादरों को
आंसू के जैसे
बहते गए, बहते गए
कुछ ने था अपने पाप का घरा भरा
जो फूटता गया, फूटता हो गया
अत्याचार की लाठी लेकर
कुछ चलते रहे
कुछ ना हुआ उनको, वो बस
चलते रहे, चलते रहे
दुख दूसरों को देकर, कुछ
खुश हो गए, खुश हो गए।

(पर देख बढ़ते पाप और अत्याचार को
आंखों ने मानो अपनी रौशनी खो दी।)

आंखें लेकिन करते भी तो क्या
बस ये सरा खेल
देखते रहे, देखते रहे।

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