बताओ तो ज़रा

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ना देखूं उसे एक पल भी तो मानो अंजीरों से जलती है ये आंखें,

ना सुनूं उसे एक पल भी मानो अनसुने लफ्ज़ों को तड़पते है ये कान,

ना बोलूं अगर उस से मैं तो मानो रुसवा हो गया है ये जहान,

ना छू लूं अगर उसे एक पल भी मैं तो मानो तन से जाती है ये जान,

बताओ तो ज़रा क्या दवा है दिल में उठ रहे इस सौंधे से दर्द की,

बताओ तो ज़रा क्या है दवा इस रोज़ इस अजीब से मर्ज़ की?

सिला-ए-दिलगि Where stories live. Discover now