3. तलाश

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दिखावटी आवरण ओढ़े इस संसार में, एक सच्चे वजूद की तलाश है।अंधाधुंध इस भागमभाग में, थोड़े से सुकून की ही आस है।

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दिखावटी आवरण ओढ़े इस संसार में,
एक सच्चे वजूद की तलाश है।
अंधाधुंध इस भागमभाग में,
थोड़े से सुकून की ही आस है।

क्यों?
क्या है जिसके पीछे सब हैं भाग रहे?
सब मात्र एक छलावा ही तो है।
जिसे समझते हैं सब अपनी आन-बान-शान,
सब मात्र एक भुलावा ही तो है।

दूसरों की बातों के बोझ तले,
आज तो दब रही खुद की ही आवाज़ है।
नन्हें से इन कदमों ने चलना बस सीखा ही था,
कि बेड़ियों की सी जकरन बन गयी एक रिवाज़ है।

क्यों कुछ पन्नों की कीमत,
आज हो चली है इंसान से ज़्यादा?
ना जाने कब आया ये तराज़ू,
तौलने को रिश्तों में नुकसान या फ़ायदा?

कौन है अपना, कौन पराया?
इसी द्वन्द्व में उलझे हैं मैं और तुम।
झूठी सी इन मुस्कुराहटों में,
क्यों किलकारियाँ हो रही हैं गुम?

थमे हुए से यह पल,
काश, फिर से चल पड़ें।
मुरझाए हुई सी यह मुस्कुराहटें,
काश, फिर से खिल उठें।
लौटा दे कोई वो सुकून भरे पल,
तलाश है मुझे जिसकी,
है वो एक मुस्कुराता हुआ कल।

© गरुणा सिंह (Stella)

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