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सबूत भी गवाह भी
किवाड़ खा गई,
जालिम ये दीमक सारी,
मक्कार खा गई।
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हराम की थी रातें,
छिपी सी मुलाकातें ,
किसने खिलाये क्या गुल,
गुमनाम सारी बातें।
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आस्तीन में छुपे हुए,
गद्दार खा गई ,
जालिम ये दीमक सारी,
मक्कार खा गई।
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जिस रोड के थे चर्चे ,
जिस पर हुए थे खर्चे ,
लायें कहाँ से उसको ,
लिख लिख भरे थे पर्चे।
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कि झूठ पर फले सब ,
रोजगार खा गई,
जालिम ये दीमक सारी,
मक्कार खा गई।
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फाइल में बन पड़ी थी ,
चौपाल की जो बातें,
ना ब्रिज वो दिखती है ,
बस नाम की हीं बातें।
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दफ्तर के काले चिट्ठे ,
कारोबार खा गई,
जालिम ये दीमक सारी,
मक्कार खा गई।
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अजय अमिताभ सुमन
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चेतना की पुकार
Poetryजीवन में बहुत सारी घटनाएँ ऐसी घटती है जो मेरे ह्रदय के आंदोलित करती है। फिर चाहे ये प्रेम हो , क्रोध हो , क्लेश हो , ईर्ष्या हो, आनन्द हो , दुःख हो . सुख हो, विश्वास हो , भय हो, शंका हो , प्रसंशा हो इत्यादि, ये सारी घटनाएं यदा कदा मुझे आंतरिक रूप से...