मैं तो भव में पड़ा हुआ ,भव सागर वन में जलता हूँ,
ये बिना आमंत्रण स्वर कैसा ,अंतर में सुनता रहता हूँ?
जग हीं शेष है बचा हुआ.चित्त के अंदर बाहर भी,
ना कोई है सत्य प्रकाशन ,कोई तथ्य उजागर भी।
मेरे जीवन में जो कुछ भी,अबतक देखा करता था,
अनुभव वो हीं चले निरंतर,जो सीखा जग कहता था।
बात हुई कुछ नई नई पर ,ये क्या किसने है बोला ?
अदृष्टित दृष्टि में कोई ,प्रश्न वोही किसने खोला?
मेरे हीं मन की है सारी,बाते कैसे जान रहा?
ढूंढ ढूंढ के प्रश्न निरंतर,लाता जो अनजान रहा?
सृष्टि की अभिदृष्टि कैसी,सृष्टि का अवसारण कैसा?
ये प्रश्न रहा क्यों है ऐसा,अदृष्टित का सांसरण कैसा?अजय अमिताभ सुमन
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चेतना की पुकार
Poetryजीवन में बहुत सारी घटनाएँ ऐसी घटती है जो मेरे ह्रदय के आंदोलित करती है। फिर चाहे ये प्रेम हो , क्रोध हो , क्लेश हो , ईर्ष्या हो, आनन्द हो , दुःख हो . सुख हो, विश्वास हो , भय हो, शंका हो , प्रसंशा हो इत्यादि, ये सारी घटनाएं यदा कदा मुझे आंतरिक रूप से...