भाग-4

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'ताले बदलवा लिए सुनयना ने. 2 छुट्टियां आईं और सुनयना अपने भाई के घर चली गई. रात 8 बजे के करीब अपने दरवाजे पर गिरीश को देख हम हैरान रह गए. एक चरित्रहीन...अपनी पत्नी को बीच रास्ते छोड़ देने वाला इनसान मेरे दरवाजे पर खड़ा था.

'' 'नमस्ते सर,' दोनों हाथ जोड़ कर उस ने मेरा अभिवादन किया. चेहरे पर कोई भी भाव ऐसा नहीं जिस से शर्म का एहसास महसूस हो. मैं कभी अपनी पत्नी का मुंह देख रहा था और कभी उस का. गृहस्थी की दहलीज पार कर के जा चुका इनसान क्या इस लायक है कि उसे मैं अपने घर के अंदर आने दूं और पानी का घूंट भी पिलाऊं.

'' 'सुनयना यहां है क्या? घर पर है नहीं न...घर की चाबियां हों तो दे दीजिए... मैं ने फोन कर के उसे बता दिया था...मां को साथ लाया हूं...वह बाहर गाड़ी में हैं. कहां गई है वह? क्या मार्केट तक गई है?'

''इतने ढेर सारे सवाल एकसाथ... उस के हावभाव तो इस तरह के थे मानो पिछले 3-4 महीने में कहीं कुछ हुआ ही नहीं है. पल भर को मेरा माथा ठनका. गिरीश के चेहरे का आत्मविश्वास और अधिकार से परिपूर्ण आवाज कहीं से भी यह नहीं दर्शा रही, जिस का उल्लेख सुनयना रोरो कर करती रही थी. उठ कर मैं बाहर चला आया. सचमुच गाड़ी में उस की बीमार मां थी.

'' 'वह तो अपने भाई के घर गई है और घर की चाबियां उस ने हमें दीं नहीं... आइए, अंदर आ जाइए.'

'' 'नहीं सर, मुझे तो मां को सीधे अस्पताल ले जाना है. कितनी लापरवाह है यह लड़की, जिम्मेदारी का जरा सा भी एहसास नहीं,' भन्नाता हुआ गिरीश चला गया.

'जिम्मेदारी का एहसास क्या सिर्फ सुनयना के लिए? तब यह एहसास कहां था जब वह अपने बच्चे का दर्द सह रही थी.' मैं ने सोचा फिर सहसा लगा, नहीं, कहीं मैं ही तो बेवकूफ नहीं बन गया इस लड़की के हाथों. हम तो उसी नजर से गिरीश को देख रहे हैं न जिस नजर से सुनयना हमें देखना सिखा रही है. सच क्या है शायद हम पतिपत्नी आज भी नहीं जानते.

'' 'दिमाग हिल गया है मेरा,' मेरी पत्नी ने अपना फैसला सुना दिया, 'मुझे तो लग रहा है कि जो कहानी सुनयना हमें सुनाती रही है वह कोरी बकवास है. 4 महीने में उस ने हमें कोई भनक ही नहीं लगने दी और क्याक्या करती रही. क्या गारंटी है सच ही बोल रही है. आज के बाद इस लड़की से मेलजोल समाप्त. हम इस दलदल में न ही पड़ें तो अच्छा है.'

''जिम्मेदारी का एहसास गिरीश को न होता तो क्या बीमार मां को ढो कर उस शहर से इस शहर में लाता. सुनयना के घर से कुछ लूटपाट कर ही ले जाना होता तो क्या उस के घर का ताला न तोड़ देता. आखिर वह मालिक था.

''दूसरी सुबह मैं अस्पताल उस पते पर गया जहां गिरीश गया था. बीमार मां की बगल में चुपचाप बैठा था वह. हिम्मत कर के मैं ने इतना ही पूछा, '4 महीने हो गए गिरीश, तुम एक बार भी नहीं आए. सुनयना बीमार थी...तुम ने एक बार हम से भी बात नहीं की.'

'' 'आप भी तो यहां नहीं थे न. आप का भाई बीमार था, आप 4 महीने से अपने घर बरेली चले गए थे. मैं किस से बात करता और सुनयना बीमार है मुझे तो नहीं पता. मैं तो तब से बस, मां के साथ हूं, नौकरी भी नहीं बची मेरी. सुनयना मां को यहां लाने को मान जाती तो इतनी समस्या ही न होती. अब क्या मांबाप को मैं सड़क पर फेंक दूं या जिंदा ही जला आऊं श्मशान में. क्या करूं मैं...आप ही बताइए?

'' 'इस लड़की से शादी कर के मैं तो कहीं का नहीं रहा. 4 साल से भोग रहा हूं इसे. किसी तरह वह जीने दे मगर नहीं. न जीती है न जीने देती है.'

'' 'घर आ कर पत्नी को बताया तो वह भी अवाक्.''

'' 'हमारा कौन सा भाई बीमार था बरेली में...हम 4 महीने से कहीं भी नहीं गए...यह कैसी बात सुना रहे हैं आप.'

''जमीन निकल गई मेरे पैरों के नीचे से. लगता है हम अच्छी तरह ठग लिए गए हैं. हमारे दुलार का अच्छा दुरुपयोग किया इस लड़की ने. अपने ही चरित्र की कालिख शायद सजासंवार कर अपने पति के मुंह पर पोतती रही. हो सकता है गर्भपात की दवा खा कर बच्चे को खुद ही मार डाला हो और हर रोज नई कहानी गढ़ कर एक आवरण भी डालती रही और हमारी हमदर्दी भी लेती रही. सुरक्षा कवच तो थे ही हम उस के लिए.

''अपना हाथ खींच लिया हम दोनों ने और उस पर देखो, उस ने हम से बात भी करना जरूरी नहीं समझा. आफिस में भी बात कर के इतना नहीं पूछती कि हम दोनों उस से बात क्यों नहीं करते. गिरीश आया था और हम उस से मिले थे उस के बारे में जब पता चल गया तब से वह तो पूरी तरह अनजान हो गई हम से.''

आज का इनसानWhere stories live. Discover now