विजय सारी कथा सुना कर मौन हो गया और मैं सोचने लगा, वास्तव में इनसान जब बड़ा चालाक बन कर यह सोचता है कि उस ने सामने वाले को बेवकूफ बना लिया है तो वह कितने बड़े भुलावे में होता है. अपने ही घर का, अपनी ही गृहस्थी का तमाशा बना कर गिरीश और सुनयना ने भला विजय का क्या बिगाड़ लिया. अपना ही घर किस ने जलाया मैं भी समझ नहीं पाया.
गिरीश सच्चा है या सुनयना कौन जाने मगर यह एक अटूट सत्य है कि हमेशाहमेशा के लिए विजय का विश्वास उन दोनों पर से उठ गया. कभी सुनयना पर भरोसा नहीं किया जा सकता और कोई क्यों किसी पर भरोसा करे. हम समाज में हिलमिल कर इसीलिए रहते हैं न कि कोई हमारा बने और हम किसी के बनें. हम सामाजिक प्राणी हैं और हमें हर पल किसी दूसरे इनसान की जरूरत पड़ती है.
कभी किसी का सुखदुख हमारे चेतन को छू जाता है तो हम उस की पीड़ा कम करने का प्रयास करते हैं और करना ही चाहिए, क्योंकि यही एक इनसान होने का प्रमाण भी है. किसी की निस्वार्थ सेवा कर देना हमारे गले का फंदा तो नहीं बन जाना चाहिए न कि हमारी ही सांस घुट जाए. तकलीफ तो होगी ही न जब कोई हमारे सरल स्वभाव का इस्तेमाल अपनी जरूरत के अनुसार तोड़मोड़ कर करेगा.
खट्टी सी, खोखली मुसकान चली आई मेरे भी होंठों पर. विजय की पारखी आंखों में एक हारी हुई सी भावना नजर आ रही थी मुझे.
पुन: पूछा उस ने, ''है न कितना मुश्किल किसी को पहचान पाना आजकल? आज का इनसान वास्तव में क्या अभिनेता नहीं बनता जा रहा?''
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आज का इनसान
Ficção Geralइनसान के चरित्र को पहचानने वाली पारखी नजरें थीं विजय के पास. पर न जाने क्यों सुनयना की बातों पर वह विश्वास कर बैठा. असलियत क्या थी यह तो वह नहीं जानता था पर आज अपने को ठगा सा महसूस करने लगा था. पढि़ए, सुधा गुप्ता द्वारा लिखित कहानी.