मनुस्मृति और भू स्वामित्व

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पीढी दर पीढी किसानों को अपने पूर्वजों के द्वारा जोती बोयी गयी भूमि प्राप्त होती रही है और शासक सामान्यतः उससे होने वाली उपज का एक हिस्सा पाने से इतर किसी प्रकार का व्यवधान भी नहीं डालते थे। जोती बोई गई भूमि पर स्वामित्व की अवधारणा के संबंध आरंभिक उल्लेख मनुस्मृति में मिलता है जिसमें कहा गया है कि- 
''भूमिस्वामित्व पर प्रथम अधिकार उसे है जिसने जंगल काटकर उसे साफ किया और जोता और बोया।'' ( मनुस्मृति 8,237,239)

यह व्यवस्था भूमि पर जोतने बोने के आधार पर किये गये कब्जे को भूस्वमित्व के रूप में मान्यता देने के सिद्धांत का प्रतिपादन करती थी। मनु के अनुसार विरासत, दान, खरीद, विजय जैसे तरीकों से भूमि पर स्वामित्व प्राप्त किया जा सकता था। 
....चूकि यु़द्ध-विजय जैसा आधार भी भूमि पर स्वामित्व का कारक था अतः यह दृढता के साथ कहा जा सकता है कि प्राचीन काल में भूमि पर अंतिम स्वामित्वाधिकार राजा का ही होता था। 

आर एस विद्यानाथ अय्यर ने 1927 में प्रकाशित 'मनुज् लैन्ड अएन्ड ट्रेड ला' में अंकित किया है कि- 

‘‘राजा का अंतिम स्वामित्वाधिकार अवश्य माना जाता था परन्तु उसका अर्थ मात्र इतना ही था कि अगर किसी किसान की मृत्यु उत्तराधिकारी के बगैर हो जाती तो उसकी जमीन के संबंध में राजा निर्णय ले सकता था। ’’

प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्थों में शासको के द्वारा अपने राज्य के विस्तारीकरण की घोषणा के रूप में राजसूय यज्ञ, विश्वजीत यज्ञ आदि आयोजित किये जाने का उल्लेख मिलता है जिसमें इन यज्ञों के की सुचारू सफलता हेतु विभिन्न प्रकार के विधान किये की व्यवस्था थी। इन विधानों मे से एक विश्वजीत यज्ञ हेतु सर्वस्व दान करने का भी विधान था। इस तथ्य की मीमांसा विभिन्न विद्वान ऋषियों द्वारा अपने अपने दृष्टिकोण से की गयी कि- सर्वस्व दान का अर्थ क्या है? क्या इस ‘सर्वस्व’ में भूमि का दान भी सम्मिलित है? 

मनोहर प्रकाशन नई दिल्ली से 1997 में प्रकाशित 'लैन्ड सिस्टम एन्ड रूरल सोसाइटी इन अर्ली इन्डिया' में कुछ प्राचीन ऋषियों का भाष्य संग्रहीत किया गया है जिसके अनुसार जैमिनी ऋषि ने इसका उत्तर नकारात्मक रूप में दिया है क्योंकि उनके अनुसार -''जमीन तो सभी जीवधारियों की है, उस पर किसी एक का अधिकार हो ही नहीं सकता। ''

शबर स्वामी ने इस पर व्याख्या करते हुये कहा है कि -''किसान खेत का मलिक है जमीन का नही। राजा फसल की रक्षा करता है और इस कार्य के पारिश्रमिक के रूप में उसे फसल का हिस्सा देय अवश्य है लेकिन इससे वह भी जमीन का मलिक नहीं बन जाता ।'' 

विनावा साहित्य के खण्ड 16 में भी इस पर चर्चा की गयी है जिसमें अंकित है कि आचार्य माधवाचार्य के द्वारा इस संबंध में की गयी व्याख्यानुसार - ''भूमि राजा का धन नहीं है, अपने अपने कर्म का फल भोगने वाले जो प्राणी है उन तमाम प्राणियों का भूमि पर अधिकार है'' 

महर्षि जैमिनि के मतानुसार "राजा भूमि का समर्पण नहीं कर सकता था क्योंकि यह उसकी संपत्ति नहीं वरन् मानव समाज की सम्मिलित संपत्ति है। इसलिये इसपर सबका समान रूप से अधिकार है"। 

पाश्चात्य विद्वान बेडेन पावेल तथा सर जार्ज कैंपबेल ने इस तथ्य की पुष्टि भी की है प्राचीन भारत में भूमि का संपत्ति के रूप में क्रयविक्रय संभव नहीं था।

कैंपबेल का कथन है कि ''भूमि जोतने का अधिकार एक अधिकार मात्र ही था और हिंदू व्यवस्था के अनुसार भूमि नहीं माना गया था।''

......जारी...

भूमि समस्या (आदि से वर्तमान तक)Where stories live. Discover now