उपज कर आरोपण

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किसानों के द्वारा जमीन के उपभोग करने के संबंध में परंपरागत रूप से सिद्वांत विकसित किये गये जिसमें फसल के बंटवारे सं संबंधित नियम भी सम्मिलित थे। दो पक्षों के मध्य उपज के बंटवारे में विवाद की स्थिति में ही किसी तीसरे ऐसे पक्ष की मध्यस्तता का प्रादुर्भाव हुआ जो तटस्थ हो और दोनो पक्षों को स्वीकार्य हो। कदाचित ऐसी परिस्थितियों ने ही समूह के लिये मुखिया जैसी किसी व्यवस्था की आवश्यकता को जन्म दिया होगा। 


समूचा ग्राम समूह आसपास जंगल काटकर खेती योग्य बनायी गयी भूमि से होने वाली उपज के समान रूप से अधिकारी होते थे। बडे विवाद जो मध्यस्तथा से नहीं सुलझ सके होगे उनके लिये मुखिया या राजा जैसी व्यवस्था पनपी होगी। यह अवश्यंभावी है कि इन मुखियाओं द्वारा आरंभ में इस प्रकार के विवादों की मध्यस्तता करते हुये इनको निबटाना सम्मानित दायित्व के रूप में अपनाया होगा परन्तु आगे चलकर इससे अधिक विषयों पर भी मध्यस्तता करने के कारण इस व्यवस्था को प्रशासनिक सुरक्षा के नजरिये से देखा गया होगा और आगे चलकर इस सुरक्षा के लिये फसल का छोटा हिस्सा कर के रूप में लगाने का प्राविधान किया होगा। सभी प्राचीन ग्रन्थों में इस तथ्य का उल्लेख है कि राज्य को कृषि उत्पादन का एक हिस्सा देय था , क्योंकि वह सुरक्षा प्रदान करता था और प्रशासनिक व्यवस्था चलाता था। शासक बदल जाने पर नये शासक को वह हिस्सा दिया जाता था। 


यह भी पढने को मिलता है कि राजाओं द्वारा विभिन्न अवसरों पर पुरस्कार के रूप में जमीनें दी जाती थीं अब चाहे वह किसी युद्ध में पराक्रम प्रदर्शित करते हुये विजयी होने की घटना हो अथवा राज्य के लिये किया गया कोई विद्धतापूर्ण कार्य। विचारणीय यह है कि पुरस्कृत व्यक्ति अपनी वृति छोडकर कृषि कार्य में नही लग जाया करते थे। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पुरस्कार के रूप में मिली भूमि से संबंधित वे सारे अधिकार जो शाशक में निहित थे अब पुरस्कृत व्यक्ति में निहित हो जाया करते थे। यह सारे उदाहरण इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि पुरस्कृत होने वाला व्यक्ति उस भूमि की उपज से राज्य को प्राप्त होने वाले हिस्से का अधिकारी हो जाया करता रहा होगा।

भूमि समस्या (आदि से वर्तमान तक)Where stories live. Discover now