मौर्य साम्राज्य में कर आरोपण

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यद्यपि ये राजा वंशानुगत होने लगे थे तथापि राज्य को इनके पद को देने तथा वापस लेने का अधिकार सदैव प्राप्त था। एक राजा के उत्तराधिकारी को राजा की सनद प्राप्त करने के लिये प्रार्थनापत्र देना पड़ता था और सनद की प्राप्ति के पश्चात् ही वह राजा होता था। 

राजस्व की अदायगी न करने के कारण किसान दंडित हो सकता था लेकिन उसकी जमीन जो उसकी आने वाली पीढियों के भी निर्वाह का साधन थी उससे छीनने की कार्यवाही विरले ही की जाती थी। 

मध्य युग में इस स्थिति में परिवर्तन हुआ । 

ईसा पूर्व मोर्य शासनकाल में भी इस प्राचीन भूमि व्यवस्था में रूपान्तरण का कोई साक्ष्य हमे नहीं मिला है और नही किसानों के भूमि अधिकारों और सिद्धांतों में परिवर्तन का कोई साक्ष्य है। पूर्व की भांति गांव के मुखिया द्वारा ही करांश की वसूली की जाती थी। इस करांश को मुखिया ही शासक को उपलब्ध कराता था। 

कर की व्यवस्थित संग्रहण हेतु साक्ष्य मौर्य साम्राज्य से प्राप्त होते हैं । इस साम्राज्य में चार प्रान्त थे और प्रान्त जनपदों में विभाजित थे और प्रान्तों के प्रमुख को 'राज्यपाल' का संबोधन दिया जाता था। राज्यपाल के नाम को भारत की वर्तमान संघीय व्यवस्था ने भी यथावत रखा है। 

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