उपज से राज्य को देय हिस्सा

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भूमि पर काश्त करने वाले किसान यथावत मेहनत करते हुये अधिकतम उपज पाने का प्रयास करते थे। इन किसान कामगरों के परिश्रम से पैदा हुयी उपज से कितना हिस्सा राज्य को देय हो इस संबंध में कोई प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है। वैदिक साहित्य में भी इस तथ्य का कोई उल्लेख नहीं है। 

स्मृतियों में यह अंश 8 से लेकर 33 प्रतिशत तक का उल्लेख करती है जिससे यह प्रतीत होता है कि जमीन की गुणवत्ता भी इसके निर्धारण की एक कसौटी रही होगी। यह भी संभव है कि जब अधिक अंश के बारे में बात की जा रही हो तो वह हिस्सा सकल उत्पादन का न होकर किसान को हुयी बचत का होता रहा हो। 

1997 में मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक स्टेट एन्ड गवर्नमेन्ट इन एन्सियन्ट इन्डिया में प्राचीन भारत के राज्यों में शासन संबंधी व्यौरों के संदर्भ में विद्वान लेखक श्री ए एस अल्टेकर ने लिखा है कि-

''शुक्रनीति कहती है कि किसान उत्पादन खर्च और राजस्व मिलाकर जो खर्च करता है उससे दुगनी आय तो उसे होनी हो चाहिये । इस प्रकार यह नीति 33 प्रतिशत राजस्व की अनुमति देती थी।''

अध्येताओ के अनुसार मनु जब भी राजस्व की बात करते हैं तो वह सकल उत्पादन के हिस्से की अपितु किसान को हुयी बचत में से ही अंश निर्धारण की बात करते हैं। 

आर एस विद्यानाथ अय्यर ने 1927 में प्रकाशित मनुज् लैन्ड अएन्ड ट्रेड ला में अंकित किया है कि-

''मनु स्मृति मेे षष्ठांश अश्टमांश और द्वादशांश का उल्लेख अवश्य किया है परन्तु मौर्य साम्राज्य के उदय तक सामान्य तौर पर द्वादशांश राजस्व ही प्रचलित दीखता है। 

यह माना जाता है कि मौर्य साम्राज्य प्रस्थापित होन पर कौटिल्य ने षष्टांश राजस्व निर्धारित किया।

भूमि समस्या (आदि से वर्तमान तक)Where stories live. Discover now