गैरवाजिब हिस्सा प्राप्त करने की अनुमति नही

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यह उल्लेखनीय है कि किसी भी काल में किसान कारीगरों के परिश्रम से हुई पैदावार का गैरवाजिब हिस्सा प्राप्त करने की अनुमति किसी न तो किसी धर्मशास्त्र में है न ही किसी राजव्यवस्था की नीतियों में और न ही किसी काल काल की सामाजिक व्यवस्था में। 

राजस्व जमीन के क्षेत्र के अनुसार नहीं अपितु उत्पादित फसल के अनुसार निश्चित होता था। वह फसल का अंश होता था न कि नकद रकम के रूप में निर्धारित धनराशि। 

नौवीं सदी के बाद कहीं कहीं नकद पैसे के राजस्व देने के बारे में छिटपुट उल्लेख मिलते हैं परन्तु आम तौर पर फसल का हिस्सा ही देय हुआ करता था । नियत राजस्व न देने पर अंतिम उपाय के तौर पर राजा किसान को खेत को हटा सकता था और उस जमीन पर दूसरे को खेती की अनुमति दे सकता था । 

उल्लेखनीय है कि राजस्व न चुकाने पर भी राजा स्वयं किसी भूमि को स्वयं नहीं ले सकता था अपितु उस पर खेती करने वाले किसान को बदल सकता था अतः यह सिद्ध है कि राजा स्वयं को भूमि का मालिक नही व्यवस्थापक भर मानता था। 

करांश की वसूली सुविधाजनक तरीके से हो इसके लिये कार्मिकों को नियुक्त किये जाने की व्यवस्था कब आरंभ हुयी इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है परन्तु यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि ही किसान की उपज से अतार्किक हिस्सा हडपने की परंपरा का आरंभ संभवतः करांश की वसूली हेतु नियुक्त कार्मिकों के प्रादुर्भाव से हुआ होगा।

इतिहासकार ए एस अलतेकर ने लिखा है

यह आश्चर्यजनक है कि राजस्व न देनेवालों की जमीन अधिग्रहीत करने के राज्य के अधिकार के बारे में स्मृतियां खामोश हैं।

यवन शासनकाल में हम इस प्राचीन भूमिव्यस्था में कोई रूपांतर नहीं पाते और न भूमि-स्वत्व-अधिकारों के मूल सिद्धांतों में परिवर्तन ही। यवन शासक भूमिकर गाँव के मुखिया द्वारा ही वसूल करते थे और कभी-कभी स्थानीय सरदारों वा राजाओं द्वारा, जो अपना स्तर गाँव के मुखिया से ऊँचा होने का दावा करते थे। इन राजाओं के दावे में राज्य और कृषक के बीच में एक मध्यवर्ती वर्ग का जन्म प्रतीत होता है। परंतु सामंतवाद पद अवरोध स्थायी रखा गया था क्योंकि राज्य सर्वदा इन राजाओं को कर्मचारी ही मानते थे। 

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