मैं काफ़ी समय तक उदारवादियों के सर्कल में रहा। उनकी आलीशान पार्टियों में महँगी वाइन गटकते हुए देश की ग़रीबी पर गंभीर चर्चायें की, उनके नेताओं की बीवियों के साथ बैठ कर विदेशी व्यंजनों का स्वाद चखा, और एक बार तो नेहरू जी के बड़े करीब से दर्शन भी किए।
मेरे एक मित्र के मित्र नेहरू जी के खास थे तो एक पार्टी में जाने का मौका मिला...वहीं उनके साथ एक हैंड-शेक हुआ। ऐसा लगा जैसे शरीर में उदारवादी खून दौड़ गया हो। मैं उस रात घर लौटते लौटते पक्का समाजवादी हो गया था। कुछ दिन और उन पार्टियों में जाता तो क्या पता स्टालिन जैसी मूँछे और लेनिन जैसी दाढ़ी रख लेता लेकिन मैने सोचा की सर्कल बदला जाए।
मेरी आध्यात्मिक तृष्णा मुझे पहले तो नरमपंथियों की बैठक में और फिर एकाएक रूढ़िवादी और कट्टरपंथी कैंप में ले आई। यहाँ अलग ही राग आलापी जा रही थी। पहले कुछ दिन तो मुझे विषयों को समझने में बहुत परेशानी हुई लेकिन फिर समझ आया की मैं एक बहुत बड़े ख़तरे में हूँ।
मुझे मेरे क़रीब रहने वाले रहमान, इम्तियाज़, और मुख़्तार से ख़तरा है। रहमान और मुख़्तार से ख़तरे की बात तो मैं समझ गया...दोनो से ही कुछ पैसे उधार लिए थे लेकिन इम्तियाज़ तो कवि टाइप आदमी था...उसकी बातें दुनिया को बहकी बहकी लगती लेकिन मुझे उसे सुनना बहुत पसंद था तो उस से भला क्या ही ख़तरा।
अक्सर हम छत पर बैठ प्रेम प्रसंगो पर चर्चा करते। उसकी अम्मी ठंडा शरबत ले आती तो लगता गले को अमृत्व मिल गया हो। ठंडी ठंडी हवाओं के बीच इम्तियाज़ की वह खूबसूरत नज़्म मेरी पूरे दिन की थकावट मिटा देती। फिर उसे एक दिन मैंने बताया की भई तुम तो मेरे लिए ख़तरा हो। पाकिस्तान लौट जाते तो हमारे कुछ कट्टरपंथी मित्रों को सुकून की नींद आ जाती।
वह हंस दिया। कहने लगा उनसे पूछो की मियाँ इतनी नफ़रत का क्या करोगे? बात ठीक लगी तो मैने मेरे दो खास कट्टरपंथी मित्रों को दावत पर बुला लिया। महफ़िल में इम्तियाज ने मेरे मित्रों के लिए एक कृष्ण भजन सुनाया और वह सुनते ही दोनों के चेहरे के हाव भाव बदल गये। यह मामला आउट ऑफ़ सिलेबस हो गया। इतनी मधुर राग और इतना सुंदर भाव था कि उनकी नफ़रती सोच पर मीठा घाव कर गया।फिर वह दोनों कुछ फुसफुसाते हुए चले गये।
मैं कुछ दिन और कट्टरपंथियों की सभाओं में गया। मुझे उदारवादी भेड़िया और पंथ निरपेक्षतावादी कह कर चिढ़ाया गया। ज़्यादा अपमान महसूस नहीं हुआ तो मैंने कुछ कहा नहीं। रईसी का बस यही फ़ायदा है। आप दल बदलो चाहे गाड़ी, कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। जब कट्टरवादी लोगों से मेल मिलाप ज़्यादा होने लगा तो मैं फिर से उदारवादी छावनी और उनकी बुर्ज़वा वाईन्स गटकने लौट आया। नेहरू से दूसरी मुलाक़ात वाक़ई यादगार रही। मैंने उनसे उनकी ख़ूबसूरती का राज पूछा और उन्होंने मुझे आँखें के डॉक्टर से मिलने की सलाह दी।
हल्की हंसी मज़ाक़ हो ही रही थी कि मैंने उनसे एडविना माउंटबेटन के परफ्यूम के बारे में पूछ लिया। मेरे कट्टरपंथी मित्रों के हिसाब से तो एडविना और नेहरू के बीच में बहुत कुछ था...सिवाय एडविना के पति के। ख़ैर मेरी बात उनके उदारवादी हृदय पर थोड़ी ज़ोर से लगी और वह वाइन पीने के बहाने से खिसक लिये। अच्छी बात है वह नेहरू थे, स्टैलिन नहीं। वरना यह कथा लिखने तक मैं ज़िंदा नहीं बचता।
ख़ैर कुछ दिन बीते। मेरी आध्यात्मिक तृष्णा अब थोड़ी शांत होने लगी थी। मैंने दोनों दलों में उठना बैठना बंद कर दिया था। अब मुझे अकेले अख़बार पढ़ने में मज़ा आने लगा।
कभी सरकारी फ़रमान की खबर होती, तो कभी किसानों के आंदोलन की। दक्षिण के भाषा विरोध की तो कभी ट्रेड यूनियंस के विरोध की। इनसे बोर होता था तो मधुबाला और गुरु दत्त के बारे में पढ़ता। वहीदा का चित्र जिस दिन अख़बार में देखा, तुरंत मेरे प्रिय नाई के पास जाकर उससे वह चित्र कटवा लाया। उसे अपने ड्रॉइंग रूम में लगाया और घंटों निहारा।
अगले दिन के अख़बार के लिये मेरी बेताबी बढ़ती जा रही थी। शायद उसमे कोई दूसरा चित्र हो वहीदा जी का। मैं बस यूँही पन्ने उलट पलट रहा था कि एक खबर दिखी। दंगों की खबर। दंगों में मारे गये लोगो की खबर। उन लोगों में मेरे दोस्त के मारे जाने की खबर। घर से निकला, तो देखा हर तरफ़ अफ़रातफ़री है। थोड़ा पता किया तो पता चला खबर पक्की थी। कृष्ण के भजन गाता वह मेरा दोस्त विचाराधाराओं के द्वंद्व में आहुति बन गया। उसका घर सुनसान था। उसकी ख़ाली कुर्सी पर मैं जाकर बैठ गया। तभी अचानक किसी ने पीछे से कंधे पर हाथ रखा और ठंडे शरबत का ग्लास आगे किया।
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देख तमाशा: लघु कथाओं का संग्रह
Короткий рассказरचना - देख तमाशा लेखक - आशुतोष मिश्रा देख तमाशा दरअसल दिल की डाइयरी जैसी है! जो अच्छा लगा, लिख दिया! ज़्यादा कुछ सोचा नहीं! यहाँ आपको लघु कथायें, विचार, कुछ कवितायें, कुछ गुदगुदाती बातचीत, कुछ अजीबोगरीब किस्से मिल सकते हैं! आशा है आपको यह सं...