ट्रेन की वह मुलाक़ात
रेलगाड़ी की खिड़की से पीछे की ओर चले जाते दृश्य ऐसे प्रतीत होते थे जैसे जीवन गुजर रहा हो। जीवन के बीते लम्हों में झाँकने के लिए ट्रेन से बेहतर बंदोबस्त भी तो नहीं है।
मैं दस मिनट में दो बार घड़ी और चार बार तुम्हे देख चुका हूँ। तुम्हारी मुस्कान की एक ज़ेरॉक्स कॉपी मेरे मस्तिष्क के अंतरिक्ष में उल्कापिंड सी विचरण कर रही है।
मन विचलित है। दुविधाओं से घिर चुका है। अनायास ही तुम्हारी आध्यात्मिक परिधि में घुसपैठ करने की युक्तियाँ खोज रहा है। सोच रहा है कि क्यूँ तुमने वो पुरानी ट्रेन की टिकट फेंक दी? क्या वह तुम्हारे मन पर एक भार थी जिसे फेंक कर अब तुम स्वतंत्र महसूस कर रही हो? तुम्हारे अश्रु जिन्हें तुम झूठी छींक के पीछे छुपा चुकी हो उनमें क्या क्रोध का भाव था या पश्चाताप का?
अक्सर सफ़र में पिछले सफर की यादें ताज़ा हो जाती है, तुम्हारी भी हो गयी होंगी । खैर मैं तुम्हे अभी इतना जानता नहीं हुँ कि इस नतीजे पर इतना जल्दी पहुंच जाऊं।
मैं जानता हूँ तुम यह एहसाह नहीं होने देना चाहती कि कुछ है जो तुम्हे परेशान कर रहा है और शायद इसीलिए तुम इतने किस्से कहानियाँ सुना रही हो और देखो कंपार्टमेंट के लोग कैसे उत्सुकता से सुन भी रहे हैं। तुम्हारा शिलांग का सफ़र, होस्टल के किस्से, और जनाब रसकिन बॉन्ड से साहित्य मेले में मुलाकात वाली बात मुझे ख़ासतौर पर बेहद दिलचस्प लगी। सुनने में इतना मज़ा आया कि पता ही नहीं चला कि कब मथुरा से कोटा आ गया।
क्या गलत होगा अगर मैं तुम्हें कहानियों की ऑडियो बुक कहूँ? वही तो हो तुम...लेकिन तुमने वो टिकट फेंकने की कहानी क्यूँ नहीं बताई? क्या पता कुछ पर्सनल हो!
वैसे रेल का सफर भी एक नई कहानी सा ही होता है। यह तुम मुझसे बेहतर जानती हो। मुझे अच्छा लगा जब तुमने मुझसे तिल के लड्डू के लिए पूछा।
पर मैं क्या करता? मना करना पड़ा वरना तुम्हे लगता मुझमें शिष्टाचार का अभाव है जो की नहीं है लेकिन फिर तुमने दूसरी दफ़ा पूछा ही नहीं और खुद माँग लूँ, यह भी सही नहीं है, तो अब मैं अपने घटिया चिप्स से काम चला रहा हूँ।
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देख तमाशा: लघु कथाओं का संग्रह
Short Storyरचना - देख तमाशा लेखक - आशुतोष मिश्रा देख तमाशा दरअसल दिल की डाइयरी जैसी है! जो अच्छा लगा, लिख दिया! ज़्यादा कुछ सोचा नहीं! यहाँ आपको लघु कथायें, विचार, कुछ कवितायें, कुछ गुदगुदाती बातचीत, कुछ अजीबोगरीब किस्से मिल सकते हैं! आशा है आपको यह सं...