तुम धीरे चलो तो कुछ बात कहूँ...
मुझे तेज़ चलना पसंद है।
दरअसल ज़रूरी बात करनी है।
अच्छा चलो बताओ...
यहाँ बैठ जाते हैं...या फिर वहाँ...नदी भी दिखाई देगी।
...नदी तो मैं हज़ारों बार देख चुकी हूँ।
मेरे साथ शायद नहीं देखी होगी...
...तुम्हारे साथ कुछ अलग होगा क्या... नदी नदी होती है!
हाँ लेकिन मैं...मैं कह रहा था की तुम अपनी ज़िद छोड़ दो।
कौनसी ज़िद?
शहर जाने की ज़िद। देखो बात नौकरी की है तो पिताजी से कह के यहाँ तुम्हारी नौकरी लगवा देता हूँ। अच्छा वेतन मिल जाएगा। माँ बाबूजी का भी ध्यान रख लेना...शहर में अकेले कैसे खुद को?
किसने कहा अकेले जा रही हूँ?
मतलब?
ओफ्फो! हरिया तो साथ ही जाएगा ना!
हरिया...वो तुम्हारा नटखट तोता...तुम भी ना!
देखो हितेश, मैं और यहाँ नहीं रह सकती। मुझे कुछ बनना है...बहुत से सपने हैं मेरे।
लेकिन फिर...
लेकिन वेकीन कुछ नहीं...तुम्हे लगता है ज़िद है तो ज़िद सही।
तुम जानती हो मैं शहर नहीं जा सकता-
-मैं तुमसे जाने को कह भी नहीं रही! मैं सब कुछ खुद देख लूँगी।
तुम्हारे दिमाग़ में यह शहर जाने का ख़याल डाला किसने?
कैसा बेतुका सवाल है ये? तुम जानते भी हो क्या कह रहे हो?
हाँ हाँ सब जनता हूँ...पिछले महीने ही मैनें घर पर अपनी शादी की बात की है...सब को मनाया...जानती हो कितना मुश्किल था?
मुझे बिना बताए हितेश! हाँ हम बहुत अच्छे दोस्त हैं...और शायद दोस्त से काफ़ी ज़्यादा लेकिन मैं शादी के लिए तैयार नहीं हूँ। तुम शायद मुझे समझना नहीं चाहते।
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देख तमाशा: लघु कथाओं का संग्रह
Nouvellesरचना - देख तमाशा लेखक - आशुतोष मिश्रा देख तमाशा दरअसल दिल की डाइयरी जैसी है! जो अच्छा लगा, लिख दिया! ज़्यादा कुछ सोचा नहीं! यहाँ आपको लघु कथायें, विचार, कुछ कवितायें, कुछ गुदगुदाती बातचीत, कुछ अजीबोगरीब किस्से मिल सकते हैं! आशा है आपको यह सं...